पंचकूला। कालका स्थित श्री काली माता मंदिर में मां की पिंडी।
कालका में महाकाली माता मंदिर का विशेष महत्व
नवरात्रों में लोग अपनी मुरादें पाने के लिए आते है मां के दरबार
महाकाली के प्राचीन मंदिर में देवी की पावन पिण्डी मौजूद
मंदिर का मुख्य द्वार पत्थर की चौखट का बना हुआ
26 सितम्बर से 04 अक्तूबर तक लगेगा अश्विन नवरात्र मेला
रमेश गोयत
पंचकूला 07 अक्तुबर 2024। प्राचीन काल में शिवालिक को शालवगिरी कहा जाता था। उत्तरी भारत का सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक महाकाली (माता) का प्राचीन मंदिर यहां कालका में शिवालिक गिरिमालाओं में बना हुआ है। पहले पहल कालका जिला अंबाला का तहसील मुख्यालय था जो अंबाला-शिमला राष्टÑीय राजमार्ग पर स्थित है। यह देव भूमि हिमाचल प्रदेश का प्रवेश द्वार है। कालका का वर्तमाल क्षेत्र तत्कालीन पटियाला रियासत का भाग था परंतु अंग्रेजों ने सन 1846 में इस पर कब्जा कर के इसको जिला शिमला में शामिल कर दिया था। 1899 में कालका को जिला अंबाला में शामिल कर दिया गया और इसके पश्चात 15 अगस्त 1995 को पंचकूला को जिले का दर्जा दिये जाने पर जिला पंचकूला में शामिल कर दिया गया।
एक दंत कथा अनुसार जब इस कस्बे में महाकाली का मंदिर स्थापित हुआ था तो इस कस्बे को पहले कालीकूट, फिर कालका के नाम से जाना जाने लगा था, जो बाद में कालका हो गया। वैसे तो यहां पर देवी-देवताओं के कई धार्मिक स्थल हैं लेकिन महाकाली का मंदिर विशेष महत्व रखता है। भारतवासियों की शक्ति पूजन में आदिकाल से ही गहरी आस्था रही है। महाकाली के प्राचीन मंदिर में देवी की पावन पिण्डी मौजूद है, जिस पर चांदी के छतर की छाया हर वक्त रहती है। मंदिर में मां के दर्शन पिंडी के रूप में किए जाते हैं। वैसे तो यहां पर देवी-देवताओं के स्थल हैं परंतु महाकाली का मंदिर विशेष महत्व रखता है। मंदिर का भवन अभी भी पत्थर के बड़े-बड़े स्तंभों, पत्थर की चौखट और पत्थर की कडियों पर टिका हुआ है। मंदिर का मुख्य द्वार भी पत्थर की चौखट का बना हुआ है जो प्राचीन काल की याद दिलाता है।
पौराणिक कथा के अनुसार यक्ष प्रतापति की पुत्री हवनकुंड में कूद गई और सती बन गई। इस दुर्घटना का समाचार पाकर भगवान शिव व्याकुल अवस्था में सती के शव को अपने कंधों पर उठाए उन्माद अवस्था में यत्र-तत्र भटकने लगे। शिव को इस शव से मुक्ति दिलाने के लिए भगवान विष्णु ने अपने धनुष से शव को विखण्डित करना शुरू कर दिया। इस प्रकार शव के जो अंग जिन-जिन स्थानों पर गिरे उन स्थानों पर मां शक्ति के तीर्थ स्थान बन गए। जैसे सहारनपुर के पास शिवालिक पर्वन पर शीश गिरने सवे शाकुंभरी देवी, कराची में हाथ गिरने से हिंगलाज देवी, चण्डीगढ के पास मनीमाजरा की शिवालिक पहाडियÞों पर मस्तक गिरने से मनसादेवी और कालका में सती के केश गिरने से महाकाली के मंदिर बने।
एक अन्य कथा में बताया जाता है कि जब मार्कण्डेय पुराण की देवी महिषासुर के वध के लिए प्रकट हुई और जब महिसासुर का सामाना इस देवी से हुआ तो यह देख कर वह दंग रह गया कि देवी अपने पांव से पृथ्वी को पाताल में दबा रही थी और अपने मुकुट से आकाश को छू रखा था। देवी ने महिषासुर राक्षस का वध कर दिया। देवी के इस रूप को मां के समान माना गया है जो सभी की रक्षा करती है और अपराध करने वालों को दण्ड देती है। दंत कथा के अनुसार यह देवी महिषासुर का वध कर के यहां समा गई थी तभी से यह स्थल महाकाली माता के नाम से प्रचलित हुआ।
सतयुग में इस भूमि का नाम सिंधु वन से प्रसिद्ध था। तत्पश्चात हिमाचल नाम का प्रतापी राजा हुए और इउसके नाम से इसका नाम हिमाचल पड़ा जो अन्य राज्यों के विवाद होने के कारण राज्य विभाजन हुए। आज यह भाग हरियाणा में स्थित है।
द्वापर युग में जब पाण्डव जुए में हारे तो उन्हें बारह वर्ष का बनवास तथा एक वर्ष का अज्ञातवास मिला था। पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास के 12 माह राजा विराट के राज दरबार में कौरवों से सुरक्षा के लिए नौकरी करके व छिपकर बिताए थे। राजा विराट के पास एक श्यामा गाय थी जो बहुत ही सुंदर एवं दूध देने वाली थी और वह राजा को बहुत प्रिय थी। कुछ समय पश्चात श्यामा गाय के बारे में यह बात फैल गई कि श्यामा गाय ने दूध देना बंद कर दिया है। जब यह समाचार राजा विराट के कानों तक पहुंचा तो उसने अपने धर्नुधरी पाण्डव पुत्र अर्जुन श्यामा गाय के पीछे-पीछे भेजा। वन में कुछ दूरी पर जाने के पश्चात श्यामा गाय एक स्थान पर रुक गई और उसका दूध स्वयं चलना आरंभ हो गया। अर्जुन ने देखा कि श्यामा गाय अपने दूध से माता जी की पिण्डी का अभिषेक कर रही है। वह बहुत प्रसन्न हुए और वह जान गए कि श्यामा गाय नित प्रतिदिन मां काली की पिण्डी का अभिषेक अपने दूध से करती है। तत्पश्चात पांचों पाण्डवों ने हर्ष एवं उत्साह के साथ वैदिक विधि से महाकाली की पिण्डी की पूजा अर्चना आरंभ कर दी और इस मंदिर की स्थापना की। तभी से माता के मंदिर की ख्याति बढती रही जो कि काली माँ के नाम से प्रसिद्ध है। इसके पश्चात जितने भी राजा महाराजा हुए, इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराते रहे।
यहां पर वर्ष में दो बार दशहरा व रामनवमी के अवसर पर भारी मेला लगता है, लेकिन चैत्र के व आश्विन के नवरात्रों में मेला काफी अधिक भरता है। लाखों की तादाद में भिन्न जातियों के लोग अपनी मुरादें हासिल करने के लिए मां के दरबार में आते है। काली माता के मंदिर के पास एक बावड़ी भी है। कालका निवासियों के पीने के पानी का समाधान काफी हद तक इस पवित्र बावड़ी के जल में होता है। 26 सितम्बर से 04 अक्तूबर तक अश्विन नवरात्र मेला लगेंगा।
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