भारत में बढ़ रही स्लीप डेप्रिवेशन, कॉर्पोरेट एम्प्लाइज पर सबसे बुरा प्रभाव
चंडीगढ़: 22 अप्रैल 2025:
हाल ही में इंटरनेशनल जर्नल ऑफ मेडिकल एंड हेल्थ साइंसेज़ में प्रकाशित एक अध्ययन ने यह चौंकाने वाला खुलासा किया है, कि कैसे नींद की कमी भारतीय कॉर्पोरेट कर्मचारियों की सोचने-समझने की क्षमता और कार्यक्षमता को प्रभावित कर रही है। देश के कॉर्पोरेट क्षेत्र के कर्मचारी गंभीर नींद संकट से जूझ रहे हैं, और इसका असर न केवल व्यक्तिगत स्तर पर बल्कि पूरे कार्यस्थल के माहौल पर भी पड़ रहा है।
इस रिसर्च को डॉ. दीपक ठाकुर (मनोवैज्ञानिक और वर्कस्पेस वेलनेस एक्सपर्ट) और मिस सिम्मी बंसल (मनोवैज्ञानिक और रिसर्चर) ने मिलकर किया है। “स्लीपलेस एम्प्लाइज : दी स्लीप क्राइसिस अमंग इंडियन कॉर्पोरेट प्रोफ़ेशनल्स एंड इट्स कॉग्निटिव कॉन्सीक्वेन्सेस" नामक इस अध्ययन में बताया गया है, कि 60% से अधिक कॉर्पोरेट कर्मचारी खराब नींद की वजह से पीड़ित हैं, जिससे उनकी याददाश्त, अटेंशन कैपेसिटी और निर्णय लेने की प्रक्रिया प्रभावित हो रही है — और यही स्थिति नींद की कमी की ओर ले जा रही है।
यह अध्ययन आईटी, फाइनेंस और मार्केटिंग जैसे हाई-स्ट्रेस सेक्टर्स के कर्मचारियों पर केंद्रित था। इसमें यह स्पष्ट हुआ, कि नींद की कमी का सीधा संबंध सोचने-समझने की क्षमताओं में गिरावट से है। इसमें अटेंटिव होना, समस्याओं का हल निकालना और जानकारी याद रखना—जो कि आज की प्रतिस्पर्धी दुनिया में सफलता की बुनियादी ज़रूरतें हैं। रिसर्च के पहले लेखक डॉ. ठाकुर बताते हैं, "जब कर्मचारी पर्याप्त और गुणवत्तापूर्ण नींद नहीं ले पाते, तो उनकी मानसिक क्षमताएं प्रभावित होती हैं। इससे निर्णय लेने में देर होती है, प्रोडक्टिविटी घटती है, और काम में ग़लतियाँ भी बढ़ जाती हैं। यह एक ‘साइलेंट प्रोडक्टिविटी किलर’ बन जाता है।”
अध्ययन में यह भी बताया गया है, कि तनाव और अत्यधिक कार्यभार इस नींद संकट के मुख्य कारण हैं। लंबे काम के घंटे और लगातार बढ़ती जिम्मेदारियों के कारण हाई-स्ट्रेस सेक्टर्स में काम करने वाले कर्मचारियों पर इसका सबसे अधिक असर पड़ा। मिस सिम्मी बंसल ने बताया, “ऐसे सेक्टर्स में हाई स्ट्रेस नींद की गुणवत्ता को बुरी तरह प्रभावित करता है। यह एक दुष्चक्र है — तनाव नींद बिगाड़ता है, और खराब नींद तनाव को और बढ़ाती है, जिससे कार्यक्षमता और ज़्यादा गिरती है।”
इस समस्या से निपटने के लिए दोनों शोधकर्ताओं ने कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए हैं, जैसे कि कर्मचारियों को नींद से जुड़ी सही जानकारी देना, फ्लेक्सिबल वर्क टाइमिंग्स को बढ़ावा देना और कॉर्पोरेट वेलनेस प्रोग्राम्स लागू करना। डॉ. ठाकुर कहते हैं, “वर्कस्पेस को यह स्वीकार करना होगा, कि नींद मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की बुनियाद है। एक सुस्वस्थ और तरो-ताज़ा कर्मचारी न केवल ज़्यादा उत्पादक होता है, बल्कि जल्दी बर्नआउट का शिकार भी नहीं होता।”
यह शोध कॉर्पोरेट सेक्टर के लिए एक वेक-अप कॉल है। इसके निष्कर्ष हमें यह याद दिलाते हैं, कि कर्मचारियों की भलाई को प्राथमिकता देना अब विकल्प नहीं, ज़रूरत बन चुका है। इस तेज़ रफ्तार, दबाव से भरे कामकाजी माहौल में नींद की बलि नहीं दी जा सकती। बेहतर नींद बेहतर मानसिक प्रदर्शन को जन्म देती है, जो कि अंततः उत्पादकता बढ़ाने और बर्नआउट से बचाने में मदद करती है। अंत में, सुश्री सिम्मी बंसल कहती हैं, “नींद की कमी से निपटना सिर्फ नैतिक जिम्मेदारी नहीं, बल्कि एक समझदारी भरा बिज़नेस निर्णय भी है। जो संस्थाएँ अपने कर्मचारियों की नींद और सेहत में निवेश करेंगी, उन्हें बेहतर प्रदर्शन, कम टर्नओवर और समग्र सफलता के रूप में निश्चित रूप से लाभ मिलेगा।”
इस रिसर्च से जुड़ी अधिक जानकारी और पूरी स्टडी April 2025 संस्करण में European International Journal of Medical and Health Sciences में उपलब्ध है। [लिंक: https://eijmhs.com/index.php/mhs/article/view/261
Kk
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